क्या आप जानते हैं रामायण में कितने शापों की चर्चा की गई है? यदि नहीं; तो यहां पढ़िए सम्पूर्ण रामायण में शाप प्रसंग (Curses Episodes in Ramayana)। रामायण की कथा में बहुत से शाप प्रसंग बताये गये हैं, जिनमें से कुछ अधिक चर्चित हुए और कुछ की चर्चा कम ही होती है।
रामायण में शाप प्रसंग – पार्ट 1 में आपने 22 शापों के विषय में पढ़ा। सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण में कुल 36 शापों की चर्चा की गई है, बाकी के शाप प्रसंग ‘रामायण में शाप प्रसंग – पार्ट 2’ में यहाँ पढ़िए।
रामायण में शाप प्रसंग – संक्षिप्त वर्णन (Curse Episode in Ramayana – Short Description)
रामायण अपने आप में एक बहुत बड़ा काव्य संग्रह है। जिसमें कई शाप सम्बंधित कथायें काफी लम्बी हैं जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन यहां सम्भव नहीं है। इसलिए पाठकों की सुविधा के लिए निम्नलिखित संक्षिप्त शाप सम्बंधित कथायें ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में यहां लिखने का प्रयास किया गया है।
तेईसवां शाप (23rd Curse) – वेदवती द्वारा रावण को शाप
‘रामायण में शाप प्रसंग’ में लिखे गये अठारहवें शाप में रावण ने वेदवती द्वारा दिए शाप प्रसंग का उल्लेख अपनी सभा में किया था, जिसका विस्तृत वर्णन उत्तरकाण्ड के 17वें अध्याय में किया गया है। भ्रमण के दौरान रावण ने हिमालय के पास तपस्या में लीन एक सुंदर कन्या को देखा। उसकी सुन्दरता एवं रूप पर रावण मोहित हो गया और वासना वश उसके पास आकर उसका परिचय पूछने लगा।
अपना परिचय देते हुए तपस्विनी कन्या ने बताया कि ‘वह ऋषि कुशद्ध्वज की पुत्री और वृहस्पति देव की पौत्री है। उसके पिता उसका विवाह भगवान विष्णु से कराना चाहते थे जबकि अनेकों राजा, महाराजा एवं ऋषि मुनि मुझसे विवाह करना चाहते थे पर मेरे पिता के द्वारा सबको मना करने के बाद नाराज़ दैत्यराज शुम्भ ने एक दिन सोते समय उनकी हत्या कर दी। उनकी मृत्यु से दुखी हो कर मेरी मां भी उनकी चिता में कूदकर भस्म हो गई। दोनों की मृत्यु से मुझे बहुत बड़ा आघात लगा।
मैंने अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु की तपस्या करने की प्रतिज्ञा ली और उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया। इसलिए मैं अभी तक तपस्यारत हूं।“ वेदवती का परिचय जानने के बाद रावण ने अपने बारे में बताना चाहा पर वेदवती ने कहा कि मैं अपने तप के बल से जान चुकी हूं कि तुम कौन हो? अब यह बताओ कि यहां क्यों आए हो और मुझसे क्या चाहते हो?
ऐसा सुनकर रावण ने कहा, “तुम सर्वगुणसंपन्न अद्वितीय सुन्दरी हो। तुम जैसी युवा कन्या को अपना जीवन तपस्या में बर्बाद नहीं करना चाहिए। मैं लंका का राजा हूं, तीनों लोकों में मुझसे अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है। तुम मेरी पत्नी बन जाओ और सुखपूर्वक मेरे साथ जीवन व्यतीत करो।“ वेदवती ने कहा “राक्षसराज! श्रीहरि विष्णु ही मेरे पति हैं, उनके सिवाय कोई और मेरा पति नहीं हो सकता, उनके लिए ही मैं इस कठोर व्रत का पालन कर रही हूं।“
रावण बोला “कौन है यह विष्णु? वह पराक्रम, बल, धन और वैभव में मेरी बराबरी नहीं कर सकता।“ वेदवती ने कहा “भगवान विष्णु तीनों लोकों के स्वामी हैं, बुद्धिमान होते हुए भी तुमने उनकी अवहेलना और अनदेखी की है।“ ऐसा सुनकर कर रावण क्रोधित हो गया और वेदवती के बाल पकड़ कर खींचने लगा। इससे वेदवती अत्यन्त रोष एवं क्रोध से भर उठी। तपस्विनी वेदवती ने अपने तपोबल से अपने हाथों को तलवार बना कर अपने बाल सिर से अलग कर लिए।
वह रोष व दुःख से भर गई और अग्नि की स्थापना करके उसमें प्रवेश करते हुए रावण को शाप देते हुए बोली “नीच निशाचर! तूने मेरा तिरस्कार किया है, मैं अब अपना जीवन सुरक्षित नहीं रखना चाहती। तूने इस वन में मेरा अपमान किया है। इसलिए मैं तेरे वध के लिए इस पृथ्वी पर फिर उत्पन्न होऊंगी। यदि मैंने सत्कर्म किये हों तो अगले जन्म में किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूं।“ ऐसा बोलते हुए वेदवती अग्नि में समा गई। वेदवती ने पहले सतयुग में जन्म लिया उसके बाद त्रेता युग में राजा जनक द्वारा हल जोतते समय देवी सीता के रूप में प्रकट हुई।
चौबीसवां शाप (24th Curse) – राजा अनरण्य द्वारा रावण को शाप
रावण ने अयोध्या के राजा अनरण्य द्वारा दिए शाप का उल्लेख अपनी सभा में किया था, जिसका विस्तृत वर्णन उत्तरकाण्ड के 19वें अध्याय में इस प्रकार किया गया है (रामायण में शाप प्रसंग, सत्रहवां शाप): दिग्विजय के उद्देश्य से रावण ने भ्रमण करते हुए सभी राजाओं के पास जाकर कहा “तुम मुझसे युद्ध करो अथवा हार मान लो और मेरे अधीन हो जाओ।“ रावण के पराक्रम, प्रभाव और बल से परिचित कई राजा महाराजाओं ने रावण से हार मान ली क्योंकि उनके पास रावण जैसे बलशाली राक्षस से युद्ध करने का साहस एवं ताकत नहीं थी।
इसी कड़ी में रावण ने अयोध्या नरेश अनरण्य से भी युद्ध करने या हार मानने की बात कही। राजा अनरण्य ने युद्ध करना स्वीकार किया और कहा मैं हार से नहीं डरता। दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। रावण के बहुत से महारथी अनरण्य का सामना नहीं कर पाये और युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। तब रावण स्वयं द्वंद युद्ध के लिए अनरण्य के सामने आया। राजा अनरण्य ने बहादुरी के साथ रावण से युद्ध किया किन्तु रावण ने उन्हें बहुत जोर का एक तमाचा मारा जिससे अनरण्य रथ से गिर गये और बुरी तरह घायल राजा मरणासन्न अवस्था में पहुंच गए और थर थर कांपने लगे।
उनकी ऐसी स्थिति देख रावण जोर जोर से हंसने लगा और व्यंग्य करते हुए बोला “तुम्हें इस समय मुझसे युद्ध करके क्या मिला? तुम भोग विलास में इतने आसक्त थे कि मेरा बल पराक्रम भी नहीं जानते।“ मरणासन्न अनरण्य ने रावण से कहा, “मुझे खुशी है कि मैंने युद्ध से मुंह नहीं मोड़ा। मेरी मृत्यु निकट थी, तुझसे युद्ध तो काल का एक बहाना था। किन्तु जिस प्रकार तूने व्यंग्य पूर्ण बचनों से इक्ष्वाकुकुल का अपमान किया है उसके लिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि एक दिन मेरे वंश में जन्मे किसी महापुरुष के हाथों तू मारा जायेगा।“ उसके बाद राजा अनरण्य स्वर्ग सिधार गए और रावण वहां से चला गया।
पच्चीसवां शाप (25th Curse) – अपहरण की गई स्त्रियों एवं कन्याओं द्वारा रावण को शाप
उत्तरकाण्ड के 24वें अध्याय में इस शाप के विषय में विस्तार से बताया गया है। ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है:- दिग्विजय यात्रा से लौटते समय रावण ने अनेक राजाओं, देवताओं, श्रषियों आदि की स्त्रियों एवं कन्याओं का अपहरण कर लिया था और उनके साथ दुराचार करने लगा। इस प्रकार रावण के डर से वह सभी शोक में डूबी स्त्रियां रोने लगी।
इस प्रकार विलाप करते हुए सभी नारियां मृत्यु देव से प्रार्थना करने लगी कि उन्हें इस लोक से उठा लें। अब बिना पति और बच्चों के हमारा जीवन व्यर्थ है। इस बलशाली राक्षस के कारण हमारी यह दशा हुई है। यह हीन बुद्धि निशाचर सबके साथ दुष्कर्म कर रहा है। इसको इस बुरे व्यवहार का फल मिलना चाहिए; अतः हम इसे शाप देते हैं कि “निशाचर रावण! एक दिन स्त्री ही तेरी मृत्यु का कारण बनेगी।“ ऐसी सती साध्वी नारियों के वचन सुनकर रावण कमजोर पड़ने लगा और उसका मन अशांत हो गया।
छब्बीसवां शाप (26th Curse) – नलकूबर द्वारा रावण को शाप
मेघनाद के यज्ञों द्वारा अतुलनीय शक्तियों की प्राप्ति के बाद रावण ने देवलोक पर आक्रमण करने का निश्चय किया। अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ मार्ग में कैलास पर्वत पर विश्राम के लिए ठहरा। कैलास की अद्वितीय छटा, रमणीय स्थलों एवं सुन्दर दृश्यों को देख रावण काम से पीड़ित होने लगा। उसी समय उसकी नजर सेना के शिविर से होकर जाने वाले रास्ते पर पड़ी।
एक सुन्दर युवती सज-धज कर देवलोक की ओर जा रही थी। रावण ने काम इच्छा से बलपूर्वक उसे रोक लिया और उसका परिचय पूछा। युवती ने कहा “राक्षसराज! मेरा नाम रम्भा है। रिश्ते में आपकी पुत्रवधू लगती हूं और मैं अभी अपने स्वामी से मिलने जा रही हूं।“
यह सुनकर रावण को बहुत आश्चर्य हुआ और बोला “तुम मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती हो?” उत्तर में रम्भा ने बताया कि “आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र नलकूबर से मेरा सम्बन्ध है इस प्रकार आप मेरे पिता समान हैं और मैं आपकी पुत्रवधू।“ इस पर रावण बोला कि यह रिश्ता उचित नहीं लगता क्योंकि देवलोक में अप्सराओं से विवाह करने का कोई नियम नहीं है और यह प्रथा देवलोक में हमेशा से ही थी।
इसलिए मैं इस रिश्ते को नहीं मानता। तब रावण ने रम्भा को पकड़ लिया और उसका बलात्कार किया। उसके बाद रम्भा रोती बिलखती नलकूबर के पास पहुंची और सारा घटनाक्रम सुनाया।
नलकूबर ने अपने तप और ध्यान से रावण की सारी करतूत जान ली। क्रोध में आकर नलकूबर रावण को शाप देते हुए रम्भा से कहा “तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध रावण ने तुम्हारे साथ अत्याचार किया है अतः आज से वह किसी भी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध समागम नहीं कर पायेगा। यदि वह उसे न चाहने वाली किसी स्त्री के साथ बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जायेंगे।“
इस प्रकार नलकूबर के मुख से निकले शाप को सुनकर ब्रह्मा सहित सभी देवताओं में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी और उन्होंने फूलों की वर्षा की। उत्तरकाण्ड के 26वें अध्याय में इस शाप का विस्तार से वर्णन किया गया है। रामायण में शाप प्रसंग के 16वें शाप में भी इसी तरह के एक अन्य शाप का वर्णन किया गया है।
सत्ताईसवां शाप (27th Curse) – ब्रह्माजी द्वारा गौतम श्रषि का शाप देवराज इन्द्र को समझना
मूल रूप से यह शाप ऊपर वर्णित ‘रामायण में शाप प्रसंग’ का 5वां और छटा शाप ही है। इस विषय में बालकाण्ड के 48वें अध्याय में केवल इतना ही बताया गया है कि गौतम श्रषि ने देवराज इन्द्र को अंडकोष झड़ जाने का और अहिल्या को अदृश्य हो कर कष्ट भोगने का शाप दिया था। किन्तु यहां उत्तरकाण्ड के 30वें अध्याय में बताया गया है कि रावण एवं देवताओं के युद्ध में जब रावण पुत्र मेघनाद ने देवराज इन्द्र को बन्दी बना लिया तब देवलोक में हाहाकार मच गया। इन्द्र को कैद से छुड़ाने के लिए ब्रह्माजी को स्वयं आना पड़ा और मेघनाद को इच्छित वर दे कर देवराज को छुड़ा लिया।
लज्जित इन्द्र को तब ब्रह्माजी ने उनको मिले शाप की बात बताते हुए कहा, “इन्द्र! पूर्व काल में किये गये पाप कर्मों के कारण ही तुम्हें शत्रु का बन्दी बनना पड़ा। अहिल्या के साथ पापाचार के कारण तुम्हें गौतम श्रषि ने शाप दिया था और इसी कारण तुम युद्ध में मेघनाद के बन्दी बने। उसके बाद इन्द्र ने ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में वैष्णव यज्ञ पूर्ण किया और देवराज का दायित्व संभाला और इन्द्र स्वर्गलोक के पुनः शासक बने।
अट्ठाईसवां शाप (28th Curse) – श्रषियों द्वारा हनुमान जी को शाप
रामायण में शाप प्रसंग की इस कड़ी में अगली कथा हनुमान जी से सम्बंधित है। इसका विवरण उत्तरकाण्ड के 36वें अध्याय में मिलता है। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को हनुमान से जुड़ी कथा सुनाते कहा कि बाल्यकाल में जब हनुमान सूर्य को फल समझ कर उसे खा जाने को उद्यत थे, उस समय इन्द्र सहित देवताओं ने समझा कि किसी शत्रु ने सूर्य पर आक्रमण कर दिया है। तब इन्द्र ने अपने बज्र से उन पर प्रहार कर दिया। बज्र की शक्ति से हनुमान मृतप्राय हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े। अपने पुत्र की यह दशा देख वायु देव को अत्यन्त दुःख हुआ और वह उन्हें अपने साथ लेकर एकांत में चले गए।
क्रोधित वायु देव ने वायु का संचार बन्द कर दिया। जिससे समस्त प्राणियों एवं देवताओं की प्राण शक्ति समाप्त होने लगी। यह देखकर ब्रह्माजी को चिंता हुई कि सभी जीव जंतु मर जायेंगे। तब वह सभी देवताओं को साथ लेकर वायु देव के पास गए। ब्रह्माजी को देख वायु देव अपने मृतप्राय पुत्र को हाथों लेकर उनके सामने आये।
ब्रह्माजी ने अपने हाथों से जैसे ही बालक हनुमान को स्पर्श किया वह जीवित हो उठे। वायु देव ने प्रसन्न होकर वायु का संचार आरम्भ करके सबको जीवनदान दिया। ब्रह्माजी ने सभी देवताओं से कहा कि यह बालक भविष्य में महान कार्य करेगा; अतः आप सभी अपनी इच्छानुसार इसे वरदान दो।
उसके बाद ब्रह्मा सहित सभी देवताओं ने हनुमान को विभिन्न वरदान दिए जिनमें प्रमुख थे अतुलित बलशाली होना, अवदध्य रहना, मन की गति से उड़ना आदि आदि। सूर्य ने शास्त्रों का ज्ञान एवं अपना सौवां हिस्सा प्रदान किया।
इस प्रकार वरदान प्राप्त बालक हनुमान श्रषियों मुनियों के आश्रम में जाकर उत्पात मचाने लगा और उनकी यज्ञ सामग्री को नष्ट करने लगा। सभी श्रषि उनको मिले वरदानों के विषय में जानते थे इसलिए उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते थे। अन्त में बहुत सोच समझ कर श्रषियों ने हनुमान को शाप दिया कि “तू अपनी शक्तियां भूल जायेगा तथा जब कभी कोई तुम्हें तुम्हारी शक्तियां याद दिलाएगा तभी तुम उन्हें वापस पाओगे।“ इस प्रकार हनुमान शान्त हो गये और श्रषियों की बाधायें भी समाप्त हुई।
उन्तीसवां शाप (29th Curse) – महर्षि भृगु द्वारा भगवान विष्णु को शाप
रामायण में शाप प्रसंग के इस एपिसोड में पहली बार ऐसी कथा पढ़ने को मिलेगी जब स्वयं भगवान विष्णु को शाप मिला। यह कथा सुमंत्र ने लक्ष्मण जी सुनाते हुए कहा कि यह बात महाराज दशरथ एवं मेरे अलावा किसी को ज्ञात नहीं थी अतः आपसे अनुरोध है कि आप भी किसी को न बताएं। फिर सुमंत्र ने बताया कि एक बार महाराज दशरथ महर्षि वसिष्ठ से मिलने पहुंचे तब वहां महामुनि दुर्वासा भी थे।
महाराज ने दुर्वासा जी से अपने वंश, राम और उनके पुत्रों से सम्बंधित भविष्य बताने का अनुरोध किया। उनकी बातें सुनकर श्रषि दुर्वासा बोले,”सुनिये राजन! देवासुर संग्राम में देवताओं से पीड़ित दैत्य भागकर महर्षि भृगु पत्नी की शरण में पहुंचे और उन्होंने दैत्यों को अभय दान और आश्रय दिया। यह देखकर भगवान विष्णु भृगु पत्नी पर क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने चक्र से उनका सिर काट दिया। अपनी पत्नी का वध हुआ देख भृगु श्रषि ने अत्यंत क्रोधित होकर विष्णु को शाप देते हुए कहा; मेरी पत्नी का कोई दोष नहीं था फिर भी आपने क्रोध वश उसका वध किया इसलिए आपको मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ेगा और वर्षों तक अपनी पत्नी से बिछड़ना पड़ेगा।
चूंकि भृगु ने स्वयं भगवान को शाप दे दिया तो उनके मन शंका होने लगी कि कहीं भगवान इस शाप को विफल न कर दें और उनकी प्रतिष्ठा पर आंच न आ जाये। अतः उन्होंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना की। इस प्रकार भृगु श्रषि की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा, “जगत का कल्याण करने लिए मैं आपका शाप ग्रहण करता हूं।“
यह प्रसंग सुनाने के बाद महर्षि दुर्वासा ने राजा दशरथ से कहा कि “भगवान विष्णु ही राम के रुप में अवतरित होकर भृगु के शाप को सत्य सिद्ध कर रहे हैं। पत्नी वियोग का फल भी राम को प्राप्त होगा। श्रीराम अयोध्या के राजा बनेंगे और ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करके वैकुंठ धाम वापस जायेंगे।“ इस कथा की विस्तृत जानकारी उत्तरकाण्ड के इक्यावनवें अध्याय में दी गई है। चूंकि हम रामायण में शाप प्रसंग पर केन्द्रित कथाओं को ही लिख रहे हैं अतः यहां सम्पूर्ण कथा लिखना सम्भव नहीं है।
तीसवां शाप (30th Curse) – ब्राह्मणों द्वारा राजा नृग को शाप
चार दिनों से श्रीराम प्रजा से नहीं मिले थे और न ही उनकी शिकायत एवं प्रार्थना सुन पाये थे। इस कारण चिंतित हो उठे। लक्ष्मण को राजा नृग की कथा सुनाते हुए कहा कि इस पृथ्वी पर बहुत पहले नृग नाम के एक राजा थे। वह धर्मात्मा, ब्राह्मण भक्त, दानी एवं सत्यवादी थे। एक बार उनके द्वारा दान में दी गई गाय के स्वामित्व के लिए दो ब्राह्मणों में विवाद हो गया। इस विवाद के निवारणार्थ दोनों राजा से मिलने पहुंचे।
बहुत दिनों तक इन्तजार करने के बाद भी उन्हें राजा के दर्शन नहीं हुए और न ही उनको अपने विवाद पर कोई न्याय मिला। राजा के ऐसे व्यवहार से दोनों ब्राह्मण बहुत दुखी होकर रोष से भर गये और राजा को शाप दे दिया। उन्होंने कहा, “राजा नृग! अपने विवादों का निर्णय लेने की इच्छा से आए प्रार्थियों को तुम दर्शन नहीं देते इसलिए तुम सब प्राणियों से छुपकर रहने वाले गिरगिट बन जाओगे और वर्षों तक गड्ढे में पड़े रहोगे। द्वापर युग में जब भगवान विष्णु कृष्ण अवतार लेंगे तब वह इस शाप से तुम्हें मुक्ति दिलायेंगे।“
राजा नृग की ऐसी कथा सुनाकर श्रीराम ने लक्ष्मण को द्वार पर प्रतीक्षा रत प्रार्थियों से मिलने भेज दिया और राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य का ज्ञान कराया। इस कथा का विस्तृत वर्णन उत्तरकाण्ड के 53वें अध्याय किया गया है।
इकतीसवां शाप (31st Curse) – वसिष्ठ और राजा निमि का एक दूसरे को शाप
राजा नृग की कथा सुनाने के बाद राम ने लक्ष्मण से कहा एक अन्य कथा भी सुनो जिसका वर्णन उत्तरकाण्ड के 55वें अध्याय में किया गया है। कथा आरम्भ करते हुए राम ने कहा कि इक्ष्वाकु के पराक्रमी एवं धर्मात्मा पुत्र राजा निमि हुए। उन्होंने एक सुन्दर नगर का निर्माण कराया और वहां एक यज्ञ करने का निश्चय किया। यज्ञ कराने के लिए उन्होंने सबसे पहले महर्षि वसिष्ठ का वरण किया और अन्य अनेक श्रषियों को भी आमंत्रित किया। वसिष्ठ जी ने कहा कि देवराज इन्द्र पहले ही यज्ञ के लिए मेरा वरण कर चुके हैं अतः आप इन्द्र के यज्ञ समाप्ति तक मेरी प्रतीक्षा करें।
महर्षि वसिष्ठ जी के जाने के बाद गौतम श्रषि वहां आये और उन्होंने यज्ञ पूरा किया। उधर देवराज इन्द्र का यज्ञ पूरा करके वसिष्ठ वहां पहुंचे। उन्होंने देखा कि उनकी प्रतीक्षा किए बिना ही गौतम ने यज्ञ पूरा कर दिया है तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वह निमि की प्रतीक्षा करने लगे। उधर राजा निमि गहरी नींद में सो रहे थे। राजा के न आने से वसिष्ठ ने क्रोधित होकर शाप देते हुए कहा “राजा निमि! तुमने मेरा अनादर करके दूसरे पुरोहित का वरण किया है, इसलिए तुम्हारा शरीर अचेतन होकर गिर जायेगा।“
उसी समय राजा की नींद खुल गई और वसिष्ठ के शाप की बात सुनकर क्रोधित होकर बोले, ”मुझे आपके आने सूचना नहीं थी इसलिए मैं सो रहा था। किन्तु आपने क्रोध वश अकारण ही शाप दे दिया; अतः महर्षि! मैं भी आपको शाप देता हूं कि आपका शरीर भी अचेतन होकर गिर जायेगा।“ इस प्रकार दोनों एक दूसरे को शाप देकर बिना देह के हो गए।
बत्तीसवां शाप (32nd Curse) – मित्र देवता द्वारा उर्वशी को शाप
उत्तरकाण्ड के 56वें अध्याय में वसिष्ठ जी के पुनः शरीर पाने के उपाय के विषय में विस्तार से बताया गया है किन्तु हम यहां ‘रामायण में शाप प्रसंग’ पर केन्द्रित शाप कथाओं का ही उल्लेख कर रहे हैं। बिना शरीर के वायु रुप में रह रहे वसिष्ठ जी को ब्रह्माजी ने वरुण देव के वीर्य में प्रवेश करने को कहा। जब काम इच्छा से वरुण देव अप्सरा उर्वशी के पास गए तो उर्वशी ने मना करते हुए कहा कि मैंने पहले ही मित्र देवता का वरण कर लिया है; अतः मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती। तब वरुण देव ने अपना वीर्य उर्वशी के पास रखे कुम्भ में डाल दिया।
उसके बाद उर्वशी मित्र देव के पास गयी। मित्र देव ने क्रोधित होकर कहा “क्यों तुमने मेरा त्याग किया और क्यों किसी दूसरे को अपना पति वरण किया?” इस प्रकार क्रोध में मित्र ने उर्वशी को शाप देते हुए कहा, ”तू कुछ समय तक मनुष्य लोक में निवास करेगी। काशी देश के राजा पुरुरवा के पास चली जा, वही तेरे पति होंगे।“ इस प्रकार शाप वश उर्वशी पुरुरवा के पास चली गई। कई वर्षों तक पृथ्वी में रहने के बाद शाप अवधि पूरी करके उर्वशी इन्द्रलोक में चली गई।
तैंतीसवां शाप (33rd Curse) – शुक्राचार्य द्वारा ययाति को शाप
श्रीराम लक्ष्मण को राजा ययाति की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि नहुष पुत्र ययाति की दो पत्नियां थीं। एक दैत्य कुल में जन्मी वृषपर्वा की पुत्री थी और दूसरी ब्रह्मर्षि शुक्राचार्य की। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ सौतेला व्यवहार देख एक दिन उसके पुत्र यति को बहुत दुःख हुआ। अपनी माता देवयानी से बोला कि मैं आपका दुःख नहीं देख सकता। महान श्रषि शुक्राचार्य की पुत्री होकर भी अपमान सहन करती हो; अतः हम दोनों ही अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं।
पुत्र की ऐसी बात सुनकर देवयानी को बड़ा दुःख और क्रोध हुआ। उसने अपने पिता शुक्राचार्य का स्मरण किया। शुक्राचार्य तुरंत वहां पहुंचे और अप्रसन्नता का कारण पूछा। देवयानी ने अपने अपमान की बात उन्हें बतायीं। अपने और पुत्री के अपमान से आहत श्रषि ने क्रोधित होकर राजा को शाप दे दिया और ययाति को संबोधित करते हुए कहा, “राजा ययाति, तुमने मेरी अवमानना की है इसलिए तुम एक बूढ़े की तरह हो जायेगी और कमजोर भी हो जाओगे।“ इस प्रकार अपनी पुत्री को सांत्वना देते हुए शुक्राचार्य अपने घर को चले गए। इस शाप प्रसंग का उल्लेख उत्तरकाण्ड के 58वें अध्याय में किया गया है।
चोंतीसवां शाप (34th Curse) – ययाति द्वारा अपने ही पुत्र यदु को शाप
रामायण में शाप प्रसंग के इस 34वें शाप की चर्चा उत्तरकाण्ड के अगले ही अध्याय 59वें में की गई है। शुक्राचार्य के शाप से वृद्ध हुए ययाति ने अपने पुत्र यदु से अपनी वृद्धावस्था ग्रहण करने को कहा किन्तु यदु ने मना करते हुए कहा कि यह कार्य आप अपने प्रिय पुत्र पुरु से करायें। उसके बाद यही बात राजा ने पुरु से पूछी। वह तुरंत तैयार हो गया और बोला मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा। यह सुनकर ययाति को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अपनी वृद्धावस्था पुरु के शरीर में स्थापित कर दी और स्वयं यौवन धारण कर लिया।
बहुत वर्षों तक राज्य करने के बाद एक दिन ययाति ने पुरु से कहा अब तुम मुझे मेरा बुढ़ापा वापस कर दो और अपना यौवन पुनः धारण करो। तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; अतः मैं तुम्हें राजा बनाऊंगा। इस प्रकार दूसरे पुत्र यदु के आज्ञा न मानने से ययाति क्रोधित हुए और उसे कभी राजा न बनने और उसके पुत्रों को इस अधिकार से वंचित रहने का शाप दे दिया। यदु को शाप देते हुए उन्होंने यह भी कहा कि उसका व्यवहार राक्षसों जैसा होने के कारण वह भयंकर राक्षसों को ही जन्म देगा जो उसी की तरह उद्दंड होंगे। यदु को ऐसा शाप देकर ययाति ने पुरु को राज्य सौंप दिया और स्वयं वानप्रस्थ में प्रवेश किया।
पैंतीसवां शाप (35th Curse) – वसिष्ठ द्वारा राजा सौदास (कल्माषपाद) को शाप
रामायण में शाप प्रसंग के 35वें शाप की चर्चा उत्तरकाण्ड के 65वें अध्याय में की गई है। शत्रुघ्न जी अयोध्या से मधुवन को लौटते समय रास्ते में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रुके। वहां उन्होंने आश्रम के पास एक बहुत पुराना अति सुन्दर यज्ञमंडप देखा। उसके विषय में पूछने पर महर्षि ने राजा सौदास की कथा इस प्रकार सुनाई। उन्होंने शत्रुघ्न को बताया कि तुम्हारे पूर्वज राजा सुदास के पुत्र सौदास एक बार शिकार खेलने के लिए वन में गये।
उन्होंने वहां देखा कि दो राक्षस बाघ का रुप धारण कर हज़ारों मृगों को खा गए, तब भी उनका पेट भरा नहीं। वह वन मृग विहीन हो गया। यह देखकर उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने उनमें से एक राक्षस को अपने वाणों से मार गिराया। जब सौदास उस मरे हुए राक्षस को देख रहे थे उसी समय दूसरे राक्षस ने राजा से कहा “तुमने मेरे निर्दोष साथी को मार डाला, इसलिए मैं तुमसे इसका बदला लूंगा।“ ऐसा बोल कर वह वहां से चला गया।
उन्हीं राजा ने इस आश्रम के पास यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ स्वयं उसकी रक्षा में थे। वह यज्ञ कई वर्षों तक चला। यज्ञ की समाप्ति के दिन वह राक्षस वसिष्ठ जी का रुप धारण करके राजा के पास आकर बोला, “राजन! आज यज्ञ की समाप्ति का दिन है अतः मुझे मांसयुक्त भोजन परोसा जाए। इसमें अधिक सोच-विचार करने आवश्यकता नहीं है।“ राजा ने रसोईयों को बुला कर कहा कि वसिष्ठ जी के लिए मांसयुक्त भोजन तैयार किया जाये। राजा की आज्ञा सुन रसोईयों को बड़ी घबराहट हुई। यह देखकर वह राक्षस रसोइये का रुप धारण कर मनुष्य का मांस ले आया और बोला यह स्वादिष्ट एवं उत्तम मांस है।
वसिष्ठ जी की थाली में मांस परोसा गया। थाली में मांस देखकर महर्षि वसिष्ठ अत्यंत क्रोधित हो गए और राजा को शाप देते हुए बोले, “राजन! तुम मुझे ऐसा भोजन खिलाना चाहते हो?, इस लिए तुम नरभक्षी राक्षस हो जाओगे और यही तुम्हारा भोजन होगा।“ शाप सुनकर राजा सौदास को भी क्रोध हुआ और मुनि वसिष्ठ को शाप देने के लिए उद्यत हुए, उसी समय उनकी पत्नी ने उन्हें रोक लिया और कहा देवतुल्य गुरु को आप शाप नहीं दे सकते। तब धर्मात्मा राजा ने उस क्रोधमय जल को अपने ही पैरों पर छोड़ दिया। ऐसा करते ही उनके पैर चितकबरे हो गये, तब से उनका नाम कल्माषपाद यानी चितकबरे पैर वाला पड़ गया।
उन्होंने वसिष्ठ जी से कहा मैंने ऐसा भोजन आपके आग्रह पर ही बनवाया और इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। तब महर्षि ने अपने तपोबल से जान लिया कि यह सब राक्षस की करतूत है। उन्होंने सौदास से कहा, “राजन! मेरा दिया हुआ शाप व्यर्थ नहीं हो सकता परन्तु इसे दूर करने के लिए मैं आपको एक वर लेता हूं। यह शाप केवल बारह वर्ष तक ही रहेगा, उसके बाद आप पुनः राज्य सुख भोग कर पायेंगे।“
कथा सुनाकर महर्षि वाल्मीकि ने शत्रुघ्न को बताया कि यह प्राचीन सुन्दर यज्ञमंडप उन्हीं राजा कल्माषपाद का है। अपने पूर्वजों की ऐसी मार्मिक कथा सुनकर शत्रुघ्न ने वाल्मीकि जी को प्रणाम किया और कुटिया के अन्दर चले गये।
छत्तीसवां शाप (36th Curse) – शुक्राचार्य द्वारा राजा दण्ड और उसके राज्य को शाप
‘रामायण में शाप प्रसंग’ का यह अंतिम प्रसंग है जिसका विस्तृत विवरण आपको उत्तरकाण्ड के 79 से 81वें अध्याय में पढ़ने को मिलेगा। श्रीराम ने दंडकारण्य वन एवं स्थान के बारे में महर्षि अगस्त्य से जब यह पूछा कि यह वन जीव जंतु विहीन कैसे हुआ? तब महर्षि ने बताया कि बहुत समय पहले दण्डधारी राजा मनु इस पृथ्वी पर राज करते थे। उनके पुत्र का नाम इक्ष्वाकु था।
मनु ने इक्ष्वाकु से कहा तुम इस पृथ्वी पर राजवंशों का विस्तार करो और दण्ड के द्वारा अपराधियों से प्रजा की समुचित रक्षा करो। बिना अपराध के किसी निर्दोष को कभी दण्ड मत देना; क्योंकि इस प्रकार न्याय सम्मत एवं विधि पूर्वक दण्ड देने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। राज्य शासन पुत्र को सौंप कर राजा समाधिस्थ हो कर स्वर्ग को चले गये।
इक्ष्वाकु ने सौ पुत्र उत्पन्न किए किन्तु उनका सबसे छोटा पुत्र मंदबुद्धि था। उसका नाम उन्होंने दण्ड रख दिया। बड़ा होने पर उन्होंने उसे विंध्य पर्वत के पास का राज्य दे दिया। इस प्रकार दण्ड ने राज काज करते हुए वहां मधुमन्त नाम का एक सुन्दर नगर भी बसाया। श्रषि शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बना कर वह राज्य का पालन करने लगा।
एक दिन राजा दण्ड भ्रमण करते हुए शुक्राचार्य जी के आश्रय की ओर चला गया। वह स्थान अत्यंत रमणीय और सुन्दर था। वहां उसने एक सुन्दर युवती को देखा और उसे देखकर उसकी काम इच्छा बढने लगी। युवती को रोक कर उसने अपनी इच्छा उसे बताई। युवती ने विनम्रतापूर्वक कहा कि “मैं आपके गुरु महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री अरजा हूं। आप मेरे साथ बल प्रयोग न करें। धर्म और शास्त्र के मार्ग अनुसार आप मेरे पिता से मेरा हाथ मांग कर विवाह कर लीजिए। मुझे आशा है कि वह आपकी बात अवश्य मान लेंगे।“ अ
रजा की बात को अनसुना करते हुए राजा दण्ड ने उसकी बांह पकड़ ली। युवती ने चेतावनी भरे शब्दों में फिर कहा कि “मेरे पिता अपने क्रोध की अग्नि से पूरे त्रिलोक को भस्म कर सकते हैं अतः तुम मेरे साथ बलात्कार न करो अन्यथा तुम्हारे इस कर्म का भयानक परिणाम होगा।“ पर दण्ड ने अरजा की बातों पर ध्यान नहीं दिया और बलपूर्वक उसका बलात्कार किया।
ऐसा दुष्कर्म करके वह अपने नगर मधुमन्त को चला गया। विक्षिप्त एवं डरी हुई अरजा आश्रम के पास अपने पिता की राह देखने लगी। जब महर्षि शुक्राचार्य वापस आश्रम पहुंचे तो उन्हें सारा वृत्तांत पता चला। अरजा रो रही थी। पुत्री की ऐसी दशा देखकर श्रषि अत्यधिक क्रोधित हो गए, उन्होंने राजा दण्ड को शाप देते हुए कहा “वह पापाचारी राजा अपने परिवार, सेना एवं राज्य सहित सात रात में नष्ट हो जायेगा। जहां तक इस राजा का राज्य है वहां तक के समस्त प्राणी सात रात तक धूल की वर्षा से अदृश्य हो जायेंगे।“
फिर उन्होंने सभी आश्रम वासियों को आदेश दिया कि सभी लोग इस राज्य की सीमा से बाहर निकल जायें। अरजा को कहा कि “तू इसी आश्रम में रहकर परमात्मा का ध्यान करते हुए अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर। तुम और तुम्हारे साथ जो भी प्राणी यहां रहेंगे वह सब इस धूल वाली वर्षा से बचें रहेंगे।“
शाप प्रसंग सुनाते हुए महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम से कहा कि इस प्रकार राजा दण्ड और उसका राज्य सात दिनों में भस्म हो गया। तभी से यह स्थान दण्डकारण्य नाम से जाना जाता है।
अंत में:
रामायण में शाप प्रसंग के दोनों पार्ट में कुल 36 शापों का वर्णन किया गया है उन सभी के विषय में विस्तृत जानकारी वाल्मीकि रामायण में आप पढ़ सकते हैं। क्योंकि यह आर्टिकल केवल शाप विषय पर ही केंद्रित था इसलिए उनकी संक्षिप्त कथाओं को ही यहां लिखने का प्रयास किया है। आशा है उक्त सभी प्रसंगों को पढ़ कर आपको नयी जानकारी मिली होगी। मेरी यह कोशिश आपको कैसी लगी? कमेंट्स के माध्यम से अवश्य बतायें।
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