क्या आप जानते हैं रामायण में कितने शापों की चर्चा की गई है? यदि नहीं; तो यहां पढ़िए सम्पूर्ण रामायण में शाप प्रसंग (Curses Episodes in Ramayana)। रामायण की कथा में बहुत से शाप प्रसंग बताये गये हैं, जिनमें से कुछ अधिक चर्चित हुए और कुछ की चर्चा कम ही होती है। सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण में जितने भी शापों का वर्णन है, उन्हें यहां क्रमवार कब, किसने, किसको दिया आदि के विषय में बताने का प्रयास किया गया है। किन्तु सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि शाप क्या होते हैं? और इनका प्रयोग कब और कौन कर सकता था?
शाप का अर्थ एवं प्रयोग
“शाप” का अर्थ है अनिष्ट की इच्छा से कहे गये शब्द, वचन या वाक्य जो शापित को हानि पहुंचायें, सामान्य जन भाषा में समझें तो यह किसी को दी जाने वाली बद्दुआ है जो देने वाले की इच्छानुसार असर करती है। हिन्दी के विद्वानों के अनुसार सही शब्द “शाप” है ना कि “श्राप”।
प्राचीन ग्रंथों एवं पौराणिक कथाओं में यह पढ़ने को मिलता है कि शाप श्रषि, मुनि, महर्षि, महात्मा, ब्राह्मण, देवी, देवता, भगवान, गंधर्व, तपस्वी, तपस्विनी, धर्म परायण एवं पतिव्रता स्त्रियां, श्रषि पत्नियां, ज्ञानी धर्मात्मा राजा, सिद्ध पुरुष एवं संत आदि उच्च कुलीन धार्मिक लोगों द्वारा ही दिया जाता रहा था। ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब किसी निम्न कुलीन, नीच, राक्षस अथवा सामान्य पुरुष या स्त्री ने किसी को भी शाप दिया हो। सभी शाप प्रसंगों में यह देखा गया है कि शाप का प्रयोग हमेशा अत्यंत क्रोध और रोष, आत्म दुख, स्वयं या अन्य की रक्षा में, हानि और अत्यंत दुख पहुंचाने वाले कारक के लिए किया जाता था।
रामायण में शाप प्रसंग – संक्षिप्त वर्णन (Curse Episode in Ramayana – Short Description)
रामायण अपने आप में एक बहुत बड़ा काव्य संग्रह है। जिसमें कई शाप सम्बंधित कथायें काफी लम्बी हैं जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन यहां सम्भव नहीं है। इसलिए पाठकों की सुविधा के लिए निम्नलिखित संक्षिप्त शाप सम्बंधित कथायें ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में यहां लिखने का प्रयास किया गया है।
पहला शाप (1st Curse) – अगस्त्य श्रषि द्वारा मारीच को शाप
वाल्मीकि रामायण में पहले शाप का उल्लेख बालकाण्ड के 25वें अध्याय में किया गया है। किन्तु इस शाप के विषय में विस्तार से जानकारी न देकर केवल संक्षिप्त टिप्पणी दी गई है। विश्वामित्र जी ने राम और लक्ष्मण को यक्ष पुत्री ताटका (ताड़का) की कथा सुनाते हुए बताया कि ताड़का ने मारीच नाम से प्रसिद्ध और बलशाली पुत्र को जन्म दिया। बाद में मारीच अगस्त्य मुनि के शाप के कारण राक्षस बन गया।
दूसरा शाप (2nd Curse) – अगस्त्य श्रषि द्वारा ताड़का को शाप
‘रामायण में शाप प्रसंग’ के दूसरे शाप का वर्णन भी बालकाण्ड के 25वें अध्याय में ही संक्षिप्त रुप में इस प्रकार किया गया है कि अगस्त्य मुनि ने ही ताड़का के पति सुंद को भी मार दिया था, जिस का बदला लेने ताड़का अगस्त्य ऋषि की ओर झपटी, तब मुनि ने उसे भी शाप दे दिया “तू राक्षसी हो जा।“ इस प्रकार ताड़का राक्षसी बनी।
तीसरा एवं चौथा शाप (3rd and 4th Curse) – देवी उमा द्वारा देवताओं और पृथ्वी को शाप
इन दोनों शापों की चर्चा बालकाण्ड के 36वें अध्याय में आती है। ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में यहां पढ़िए यह संक्षिप्त कथा जो इस प्रकार है: विश्वामित्र जी ने पर्वत राज हिमवान की छोटी पुत्री उमा की कथा राम, लक्ष्मण और मुनियों को सुनाई कि उमा का विवाह शिव से हुआ। वर्षों तक रमण के बाद भी उमा का गर्भ धारण नहीं हुआ, तब ब्रह्माजी एवं अन्य देवताओं को चिंता हुई कि यदि उमा का गर्भ धारण नहीं हुआ तो रुद्र के तेज को कौन सम्भाल पायेगा। सभी ने शिव से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप अपने तेज यानी वीर्य को अपने आप में ही धारण कीजिए।
भगवान शिव ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और कहा कि यदि मेरा तेज (वीर्य) क्षुब्ध होकर स्खलित हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा। यह सुनकर देवताओं ने कहा कि यह कार्य पृथ्वी देवी करेंगी। इस प्रसंग के बाद उमा ने क्रोधित होकर देवताओं को शाप दिया कि जिस प्रकार तुम ने मुझे पुत्र प्राप्ति से रोका वैसे ही तुम और तुम्हारी पत्नियां भी संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह पाएंगी। उसके बाद उमा ने पृथ्वी को भी संतान सुख न प्राप्त होने का शाप दिया।
पांचवां एवं छटा शाप (5th and 6th Curse) – गौतम श्रषि द्वारा इन्द्र और अहिल्या को शाप
मिथिला के पास एक वीरान आश्रम के बारे में पूछने पर विश्वामित्र जी ने राम और लक्ष्मण को गौतम श्रषि और उनकी पत्नी अहिल्या की कथा सुनाई। गौतम श्रषि की तपस्या को भंग करने के उद्देश्य से देवराज इन्द्र उनका वेश धारण करके आश्रम में आये, उस समय श्रषि आश्रम में नहीं थे। इन्द्र ने अहिल्या के साथ रति क्रीड़ा की और श्रषि के आ जाने के डर से भागने लगे, तभी गौतम आश्रम में पहुंचे और इन्द्र को देख कर क्रोधित हो गए और इन्द्र को शाप दिया कि उसके अंडकोष गिर जायें। तुरंत ही देवराज इन्द्र के अंडकोष झड़ गये। साथ ही उन्होंने अहिल्या को भी शाप दिया कि तू अदृश्य हो कर कष्ट से इस भूमि पर पड़ी रहेगी।
उन्होंने आगे कहा कि हजार वर्ष बाद एक दिन जब श्रीराम के चरण यहां पड़ेंगे तब तुम्हें मुक्ति मिलेगी और अपने रुप में वापस आओगी। यह वृत्तांत बालकाण्ड के 48वें अध्याय में दिया गया है। रामायण में शाप प्रसंग की इस कड़ी में इस शाप का वर्णन आगे उत्तरकाण्ड के 30वें अध्याय में भी किया गया है।
सातवां शाप (7th Curse) – वसिष्ठ पुत्रों द्वारा राजा त्रिशंकु को शाप
बालकाण्ड के 58वें अध्याय में दिये गये वृत्तांत के अनुसार राजा जनक के पुरोहित शतानंद जी ने राम एवं लक्ष्मण को राजा त्रिशंकु की कथा सुनाते हुए कहा कि त्रिशंकु शरीर सहित स्वर्गलोक जाना चाहते थे और उसके लिए एक यज्ञ करना चाहते थे। उनके पुरोहित वसिष्ठ जी ने यज्ञ करने से मना करते हुए कहा कि स:शरीर स्वर्ग नहीं जाया जा सकता है। यह धर्म, नीति एवं देव विरुद्ध कार्य है; अतः मैं ऐसा यज्ञ नहीं करूंगा।
वसिष्ठ जी के मना कर देने के बाद त्रिशंकु ने वसिष्ठ जी के पुत्रों से यज्ञ कराने का आग्रह किया किन्तु उन्होंने भी पिता के विरुद्ध न जा कर यज्ञ न करने का सुझाव दिया। क्रोध में आ कर त्रिशंकु ने अपने पुरोहित को छोड़कर किसी अन्य ज्ञानी श्रषि अथवा ब्राह्मण की शरण में जाने की बात कही। अपना और अपने पिता का अपमान होता देख वसिष्ठ पुत्रों ने क्रोधित हो कर त्रिशंकु को शाप दे दिया “तू चांडाल हो जायेगा“ और उसके बाद उनका रुप, रंग सब चांडाल में बदल गया। रामायण में शाप प्रसंग का अगला शाप भी राजा त्रिशंकु से सम्बंधित है।
आठवां शाप (8th Curse) – विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठ पुत्रों को शाप
रामायण में शाप प्रसंग का 8वां शाप भी बालकाण्ड से ही है। चांडाल बनने के बाद त्रिशंकु की आगे की कथा 59वें अध्याय में इस प्रकार कहीं गई है कि त्रिशंकु तब विश्वामित्र जी की शरण में आए और उनसे यज्ञ करने का आग्रह किया ताकि शरीर सहित स्वर्ग जा सकें। विश्वामित्र ने आग्रह स्वीकार कर लिया और शिष्यों को आदेश दिया कि यज्ञ की तैयारी की जाए साथ ही सभी श्रषि, मुनियों, देवताओं और ब्राह्मणों को यज्ञ में आने का निमंत्रण भेजो, जो न आए तो उसकी प्रतिक्रिया मुझे बताओ। इस प्रकार शिष्यों को आदेश दे कर विश्वामित्र यज्ञ की तैयारी में लग गए।
शिष्यों ने विश्वामित्र जी को बताया कि वसिष्ठ पुत्रों ने क्रोध पूर्ण शब्द बोल कर आने से मना किया और कहा है कि एक क्षत्रिय को चांडाल के लिए यज्ञ करना अनुचित है। ऐसे अपवित्र यज्ञ में ब्राह्मण प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसा सुनकर विश्वामित्र क्रोधित हो गए, स्वयं को निर्दोष बताते हुए उन्होंने वसिष्ठ पुत्रों को शाप दे दिया कि वो भस्म हो जाएं एवं सात जन्मों तक चांडाल योनि में जन्म लें।
नौवां शाप (9th Curse) – विश्वामित्र द्वारा अपने पुत्रों को शाप
‘रामायण में शाप प्रसंग’ के 9वें शाप का वर्णन बालकाण्ड के 62वें अध्याय में मिलता है जहां शतानंद जी ने आगे की कथा सुनाते हुए बताया; अयोध्या के राजा अम्बरीष एक यज्ञ करना चाहते थे तभी यज्ञ पशु इन्द्र ने चुरा लिया। ब्राह्मणों ने बताया कि बिना यज्ञ पशु के यज्ञ नहीं हो सकता अतः आप पशु को ढूंढ कर लाएं या किसी पुरुष को खरीद कर लाएं। काफी ढूंढ खोज के बाद भी खोया हुआ पशु नहीं मिला।
खोज करते हुए राजा अम्बरीष, ऋचीक मुनि के आश्रम में पहुंचे। वहां श्रषि को अपने पुत्रों के साथ बैठा देख राजा ने श्रषि से उनका एक पुत्र यज्ञ के लिए बेचने का आग्रह किया। श्रषि का मझला पुत्र शुन:शेप स्वयं ही राजा के साथ चलने को तैयार हो गया। श्रषि को धन धान्य देकर और शुन:शेप को साथ लेकर राजा घर की ओर चले।
जब महाराज अम्बरीष पुष्कर में विश्राम के लिए रुके तब शुन:शेप पास में ही तपस्या कर रहे अपने मामा श्रषि विश्वामित्र से मिलने पहुंचा। शुन:शेप ने अब तक का सारा घटनाक्रम उन्हें बताया और अपनी रक्षा की प्रार्थना की। साथ ही उसने विश्वामित्र जी से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप कुछ ऐसा उपाय कीजिए कि राजा अम्बरीष का भी काम हो जाए और मेरी भी रक्षा हो सके। उसके बाद विश्वामित्र जी ने अपने पुत्रों को बुला कर कहा कि मैंने शुन:शेप की रक्षा का वचन दिया है, इस लिए तुम सभी राजा के यज्ञ में पशु बनकर यज्ञ पूरा करो। इस प्रकार शुन:शेप की रक्षा भी होगी, राजा का यज्ञ सम्पन्न हो जायेगा, देवता भी प्रसन्न होंगे और मेरी आज्ञा का पालन भी हो जायेगा।
यह सुनकर श्रषि पुत्रों ने घमंड एवं अवमानना से पिता से कहा कि दूसरे के पुत्र को बचाने के लिए आप अपने पुत्रों की बलि कैसे दे सकते हैं। हमारी दृष्टि में यह अनुचित एवं अकर्तव्यनीय है। अपने पुत्रों के मुंह से ऐसी बातें सुनकर कर विश्वामित्र जी को बहुत दुःख हुआ। अपनी आज्ञा का उल्लंघन होते देख उनको बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने ही पुत्रों को शाप दे देते हुए कहा कि धर्म का पालन न करके तुम लोगों ने बहुत बड़ा निन्दनीय कार्य किया है। अतः तुम भी वसिष्ठ श्रषि के पुत्रों की भांति ही चांडाल योनि में जन्म लोगे और एक हजार वर्ष तक यह शाप भोगोगे।
दसवां शाप (10th Curse) – विश्वामित्र द्वारा रम्भा को शाप
विश्वामित्र जी की घोर तपस्या से इन्द्र आदि देवता काफी घबरा गये। तब इन्द्र ने रम्भा नामक अप्सरा को बुला कर विश्वामित्र की तपस्या भंग करने हेतु मना लिया। रम्भा ने कोयल सी मधुर वाणी एवं श्रृंगार से विश्वामित्र जी को लुभाना आरम्भ कर दिया किन्तु इस बार श्रषि सतर्क हो गए क्योंकि पिछली बार मेनका के लुभावने रुप पर वो आसक्त हो गये थे और उनकी तपस्या विचलित हो गई थी, पर इस बार उनके मन में संदेश हो गया।
देवराज इन्द्र की चाल उन्हें समझ में आ गई। क्रोध में आकर उन्होंने रम्भा से कहा “तू मेरी तपस्या भंग करने के उद्देश्य से मुझे विचलित करना चाहती है अतः मैं इस अपराध के लिए तुम्हें शाप देता हूं कि तू दस हजार वर्ष तक पत्थर की मूर्ति बनी रहेगी। शाप का समय पूर्ण होने पर महान श्रषि वसिष्ठ तेरा उद्धार करेंगे”। मुनि के शाप से रम्भा तुरंत पत्थर की मूर्ति बन गई। ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में उक्त शाप के विषय में यहाँ संसिप्त वर्णन किया है। विस्तृत वर्णन बालकाण्ड के 64वें अध्याय में दिया गया है।
ग्यारहवां शाप (11th Curse) – अंधे मां बाप द्वारा राजा दशरथ को शाप
रामायण में शाप प्रसंग के 11वें की काफी चर्चा होती है। अयोध्याकाण्ड के 64वें अध्याय में राजा दशरथ को मिले शाप की कथा का वर्णन इस प्रकार दिया गया है कि राम के वनवास में चले जाने के बाद पुत्र शोक में डूबे महाराज दशरथ को अपनी युवावस्था में उनके हाथों हुआ एक पाप उन्हें याद हो आया और मरणासन्न अवस्था में उन्होंने रानी कौशल्या को वह वृतांत सुनाया।
उन्होंने बताया कि जब वह युवराज थे उस समय उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाने की विद्या सीख ली थी और उन्हें उस पर घमंड था। उन्होंने आगे बताया, एक बार मैं सरयू के किनारे जंगल में शिकार खेलने गया उस समय रात का वक्त था। मैं नदी के पास ही अंधेरे में शिकार के लिए किसी जंगली जानवर की प्रतीक्षा कर रहा था तभी मैंने घड़े में पानी भरने की आवाज सुनी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई हाथी सूंड में पानी भर कर आवाज कर रहा है। अंधेरे के कारण मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, तब मैंने उस आवाज को लक्ष्य करके शब्दभेदी बाण चला दिया। बाण लगते ही किसी मनुष्य के कराहने एवं चिल्लाने की आवाज आई। मैं घबराकर उस ओर भागा और देखा कि मेरे बाण से एक मुनि कुमार घायल अवस्था में पड़ा है और पास ही घड़ा भी गिरा हुआ है।
मुझे देख मरणासन्न मुनि कुमार ने पूछा कि “आपने मुझे क्यों मारा, मेरा क्या दोष था? मैं यहां अपने अंधे, बूढ़े एवं प्यासे मां-बाप के लिए पानी लेने आया था।“ ऐसा सुनकर मैंने प्रार्थना पूर्वक कहा कि यह अनजाने में अज्ञानतावश हुआ है, मुझे लगा था कि यहां हाथी है इसलिए मैंने बाण चलाया। श्रषि कुमार आप मुझे क्षमा करें, मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। तब उन श्रषि कुमार ने कहा कि मैं अपने अंधे बूढ़े मां-बाप का एकमात्र पुत्र और सहारा हूं। थोड़ी ही दूरी पर वो मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, आप उनके पास जाकर स्वयं स्थिति का वर्णन करें अन्यथा वो अपनी शक्ति से आपको भस्म कर देंगे और ऐसा बोल कर उन श्रषि कुमार ने प्राण त्याग दिए।
शोकाकुल महाराज दशरथ ने आगे का वृत्तांत बहुत धीमी आवाज में रानी कौशल्या को इस प्रकार सुनाया; उन्होंने कहा जब श्रषि कुमार ने प्राण त्याग दिए तो मैं बहुत दुखी हो गया, मेरी बुद्धि काम नहीं कर पा रही थी। थोड़ा सहज हो कर दुखी मन से घड़े में पानी भर कर मैं उन बृदध मां-बाप की ओर बढ़ा। कुछ ही दूरी पर वो दिखाई दिये, मैं धीरे धीरे उनकी ओर बढ़ा। पैरों की आवाज सुनकर उन्होंने अपना पुत्र समझ कर कहा “बेटा बहुत देर कर दी तूने पानी लाने में, कहां था अभी तक?, हम प्यास से व्याकुल हो रहे हैं।” अपने आप को सहज करते हुए मैंने अपना परिचय दिया और अब तक का सारा वृत्तांत सुनाया। मैंने क्षमा याचना करते हुए कहा यह सब अनजाने हुआ है, में हत्या का दोषी हूं, मुझे क्षमा दान दीजिए।
बृदध ने कहा मुझे मेरे पुत्र के शव के पास ले चलिये। मैं उन्हें शव के पास ले गया फिर उसे जलांजलि देकर पुत्र शोक में डूबे उन बृदध ने मेरी ओर मुड़ कर बोला “हे राजन, मैं तुम्हें शाप देता हूं जिस प्रकार मैं पुत्र शोक में तडप रहा हूं उसी प्रकार एक दिन तुम भी पुत्र शोक का कष्ट भोगोगे।” उसके बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए। इस प्रकार कौशल्या को कथा सुनाते हुए महाराज दशरथ की आंखें बन्द होने लगी।
बारहवां शाप (12th Curse) – कुबेर द्वारा विराध (गंदर्भ) को शाप
अरण्यकाण्ड के अध्याय चार (4th) में शाप के विषय में इस प्रकार बताया गया है:- दंडक वन में कुछ दूर चलने के बाद राम, सीता और लक्ष्मण के सामने एक भयंकर राक्षस मार्ग रोककर खड़ा हो गया। तब राम ने क्रोधित होकर हटने के लिए कहा, किन्तु उसने अनसुना करते हुए कहा “मैं विराध नाम का राक्षस हूं। मैंने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया है कि मुझे अस्त्र शस्त्र से कोई नहीं मार सकता, अतः इस स्त्री को मुझे सोंप कर तुम दोनों यहां से वापस लौट जाओ अन्यथा मैं तुम्हें मार कर खा जाऊंगा।“
ऐसा सुनकर राम और लक्ष्मण ने अपने बाणों से विराध को छलनी कर दिया किन्तु वरदान के कारण वह मरा नहीं। राक्षस ने पूरी ताक़त के साथ उन पर हमला कर दिया। तब राम ने लक्ष्मण से कहा कि यह वरदान प्राप्त राक्षस है वाणों से नहीं मरेगा अतः इसकी बांहें उखाड़कर पटक कर मारना पड़ेगा, और फिर दोनों ने उसकी दोनों बांहें उखाड़कर फेंक दिये, और पटक पटक कर पृथ्वी पर गिराया। इस प्रकार बाणों से छलनी राक्षस की गर्दन राम ने दबाकर लक्ष्मण से गड्ढा खोदने और उसमें राक्षस को डालने की बात कही।
तब मरणासन्न राक्षस बोला भगवन मैंने आपको पहचान लिया है, आप दशरथनंदन श्री राम हैं और आपके हाथों ही मेरा उद्धार होना निश्चित था। उसने आगे बताया कि पूर्व में वह एक गंदर्भ था। एक दिन सेवा में देर से पहुंचने पर हमारे राजा कुबेर ने नाराज हो कर मुझे शाप दे दिया कि “तू राक्षस हो जा, और एक दिन दशरथनंदन राम तेरा वध करके उद्धार करेंगे।“ इस प्रकार राम एवं लक्ष्मण ने उसको गड्ढे में डालकर ढक दिया और उसका उद्धार कर राक्षस योनि से मुक्त किया।
तेरहवां शाप (13th Curse) – स्थूलशिरा श्रषि द्वारा कबंध को शाप
इस शाप के बारे में अरण्यकाण्ड के अध्याय 70 एवं 71वें में विस्तार से बताया गया है कि सीता की खोज में राम और लक्ष्मण एक बहुत घने वन में पहुंचे जो मतंग श्रषि के आश्रम के पास था। चलते चलते अचानक उनके सामने एक विशालकाय पहाड़ जैसा राक्षस आ गया। वह एक कबंध (बिना शिर वाला) राक्षस था। उसके पेट में मुंह और आंखें छाती में थी। उसकी दोनों बांहें बहुत लम्बी थी, उन्हीं लम्बी बाहों से घेर कर उसने राम और लक्ष्मण को पकड़ लिया। उसने कहा ‘मेरी भूख मिटाने के लिए मेरे मुंह में चले आओ, भाग्य ने तुम्हें मेरे भोजन के लिए ही यहां भेजा है।‘
कष्ट में पड़े दोनों भाइयों ने निश्चय किया कि वो उसकी बाहें काट दें। तुरंत ही तलवार से उन्होंने एक साथ राक्षस की बांहें कन्धों से काट गिरायीं। बांहें कटते ही राक्षस गर्जना करते हुए धरती पर गिर पड़ा। ख़ून से सने राक्षस ने पूछा “तुम दोनों कौन हो?”। लक्ष्मण ने दोनों का परिचय देने के बाद उससे पूछा कि “तुम कौन हो और यहां कैसे पड़े हो?”
अपने बारे में बताते हुए उसने कहा, पहले मैं बलवान, रुपवान, सुन्दर एवं तेजस्वी था। इसी घमंड से मैं राक्षस का रुप धारण कर वन में रहने वाले श्रषि मुनियों को डराता था। एक दिन मैंने स्थूलशिरा श्रषि को राक्षस रुप से डरा दिया तब उन्होंने कुपित होकर मुझे शाप देते हुए कहा “आज से तेरा यही राक्षसी रुप हो जाय”। मैंने प्रार्थना कर मुक्ति का उपाय पूछा। तब उन्होंने कहा “एक दिन जब राम और लक्ष्मण तेरी बांहें काट कर निर्जन वन में जलायेंगे तब तुम अपने सुन्दर रुप को पुनः प्राप्त करोगे“। कुछ विराम के बाद कबंध ने आगे बताया कि “राक्षस हो जाने के बाद मैंने ब्रह्माजी की तपस्या करके दीर्घजीवी होने का वरदान प्राप्त कर लिया।
एक दिन दीर्घ आयु के वरदान से निडर होकर मैंने देवराज इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। इन्द्र ने अपने वज्र से प्रहार किया जिससे मेरा शिर और जांघें मेरे ही शरीर में धंस गये और मेरी जंघा भी टूट गयी। तब देवराज से मैंने प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं बिना मुंह के भोजन कैसे करूंगा। उन्होंने मेरे पेट में मुंह बना दिया और दोनों बांहें इतनी लंबी बना दी जिससे मैं अपना भोजन पकड़ कर खा सकूं तथा इन्द्र ने मुझे यह भी बता दिया था कि जब राम और लक्ष्मण तुम्हारी भुजाएं काट देंगे तब तुम स्वर्ग में जाओगे। आज मुझे श्रषि और देवराज की कही हुई बातें सत्य प्रतीत हो रही हैं, इसलिए हे श्री राम! मुझे जला कर मेरा उद्धार कीजिए।“
चौदहवां शाप (14th Curse) – मतंग ऋषि द्वारा वाली को शाप
किष्किंधाकाण्ड के 11वें अध्याय में इस शाप की चर्चा मिलती है जहां सुग्रीव ने राम और लक्ष्मण को दुंदुभि नामक राक्षस एवं वाली से सम्बंधित कथा के बारे में बताया कि एक बार दुंदुभि अपने बल और पराक्रम के घमंड में आकर युद्ध की इच्छा से समुद्र के पास गया। समुद्र ने प्रार्थना करके कहा कि मैं युद्ध योग्य नहीं हूं, मुझसे अधिक बलवान तो पर्वतराज हिमालय हैं। तुम उनसे युद्ध कर सकते हो। तब घमंडी दुंदुभि पर्वतराज के पास युद्ध के लिए पहुंचा।
पर्वतराज हिमालय ने शान्ति पूर्वक कहा कि किष्किंधा में महान बलशाली वानर राज वाली रहते हैं जो तुम से युद्ध करने में सक्षम हैं। तुम उनसे युद्ध कर सकते हो। तब क्रोध से भरा हुआ दुंदुभि किष्किंधा की राजधानी में पहुंचकर वाली को ललकारने लगा। राक्षस की आवाज सुनकर वाली बाहर निकला और बोला ‘दानव दुंदुभि यहां क्यों आया है?’ क्रोध में आकर दुंदुभि ने कहा कि ‘यदि तुम वास्तव में बलशाली हो तो मुझे से युद्ध करो। में तुम्हें अभी मार सकता हूं किन्तु कल तक का समय देता हूं।‘
ऐसा सुनकर वाली को क्रोध आ गया और उसने दुंदुभि को पटक-पटक कर मारना शुरू कर दिया और दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। दुंदुभि का शरीर भैंसे की आकार का था। वाली ने उसकी दोनों सींग पकड़कर चारों तरफ घुमाते हुए धरती पर भटकते हुए मार डाला। मरे हुए दुंदुभि की लाश को वाली ने घुमा कर दूर फेंक दिया जो कि मतंग ऋषि के आश्रम में जाकर गिरी। खून के छींटे मतंग ऋषि के ऊपर भी जा गिरे, जिससे ऋषि क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने योग बल से जान लिया कि यह काम किसी वानर का है और उन्होंने शाप दे दिया कि आज से अगर वह वानर इस आश्रम की परिधि में भी आया तो उसकी मृत्यु हो जाएगी तथा जो भी वानर कल से मेरी दृष्टि के सामने आएगा, वह पत्थर बन जाएगा। यह सुनकर सारे वानर घबराकर अपने राजा वाली के पास पहुंचे और मतंग ऋषि का दिया हुआ शाप उन्हें सुनाना।
शाप सुनकर वाली घबरा गया। उसने ऋषि से क्षमा याचना की किंतु ऋषि ने उसकी याचना को स्वीकार नहीं किया। तब से आज तक वाली शाप के भय से ऋष्यमूक पर्वत के आसपास नहीं आता। इस कारण मैं हनुमान आदि वानरों के साथ वाली के भय से छुप कर यहां रहता हूं। इस प्रकार सुग्रीव ने वाली को मिले शाप का वर्णन राम और लक्ष्मण से किया।
पन्द्रहवां शाप (15th Curse) – कंडु श्रषि द्वारा हर-भरे वन को शाप
सीता की खोज में अंगद और हनुमान की वानर टुकड़ी विंध्य पर्वत के पास एक ऐसे निर्जन एवं वीरान वन में पहुंची जहां कोई पशु एवं पक्षी नहीं थे। यह वन बिल्कुल सूनसान एवं वीरान था, जहां के पेड़ पौधों में कोई हरियाली नहीं थी, नदियों में पानी भी नहीं था। फल फूल तो असंभव ही थे तभी उन्हें पता चला कि यहां पहले कंडु नाम के एक महर्षि रहते थे।
उस समय यह वन हरा भरा एवं वन्य जीव जंतुओं से भरा हुआ था, किंतु एक बार उनके 10 वर्षीय पुत्र की किसी अज्ञात कारण से इस वन में मृत्यु हो गई, तब महर्षि बहुत कुपित हो गए। उन्होंने इस वन को शाप दे दिया कि ‘यह वन आश्रय हीन, निर्जन एवं वन्य जीव जंतुओं से विहीन हो जाए।‘ तब से इस वन का जीवन समाप्त हो गया। इस शाप के बारे में किष्किंधाकाण्ड के 48वे अध्याय में चर्चा की गई है।
सोलहवां शाप (16th Curse) – ब्रह्माजी द्वारा रावण को शाप
युद्धकाण्ड के 13वें अध्याय में ‘रामायण में शाप प्रसंग’ के 16वें शाप के विषय में इस प्रकार कहा गया है कि रावण के एक मंत्री एवं महाबली महापार्श्व ने रावण से कहा कि “आप सीता का बलपूर्वक उपभोग करके उसे अपने अधिकार में कर लीजिए। हम इतने शक्तिशाली हैं कि अकेले ही राम, लक्ष्मण एवं सारी वानर सेना का दमन आसानी से कर सकते हैं। आप सीता के साथ राजभवन में आनंद से रहें।” यह सुनकर रावण ने कहा, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मुझे एक शाप प्राप्त हुआ है जो आज तक गुप्त है और किसी को पता नहीं है। आज यह रहस्य बताता हूं।
बहुत समय पहले मैंने पुंजिकस्थला नाम की एक अप्सरा को देखा। वह ब्रह्माजी के भवन की ओर जा रही थी। मैंने उसे पकड़ लिया और बलपूर्वक उसका उपभोग किया। उसके बाद वह ब्रह्माजी के भवन में गयी। उसकी दुर्दशा देखकर कर ब्रह्माजी मुझ पर अत्यंत क्रोधित हो गए और मुझे शाप दिया कि आज से तू यदि किसी भी नारी का बलपूर्वक उपभोग करेगा तो तेरे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। इस प्रकार मैं शाप के भय से सीता पर बल प्रयोग नहीं कर सकता और मैं जानता हूं कि ब्रह्माजी का शाप व्यर्थ नहीं जा सकता।“ इसी तरह के रावण को मिले एक अन्य शाप के विषय में ‘रामायण में शाप प्रसंग’ के 26वें शाप प्रसंग में भी आपको पढ़ने को मिलेगा।
सत्रहवां एवं अठारहवां शाप (17th and 18th Curse) – रावण का राजा अनरण्य और वेदवती द्वारा दिए शाप का जिक्र करना
रावण ने जब वानर सेनापति नील, लक्ष्मण एवं अन्य वानर योद्धाओं को घायल कर दिया तब स्वयं राम, रावण से युद्ध करने आए। उस समय भयंकर युद्ध छिड़ गया। राम ने अपने शक्तिशाली वाणों से रावण को बुरी तरह घायल एवं परास्त कर दिया और उसे जीवित छोड़ते हुए कहा “जा, आज तुझे मैं नहीं मारूंगा, तू थक गया है आराम कर, कल अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ युद्ध करना।“ ऐसे व्यंग्य वचनों को सुनकर रावण आहत एवं दुखी हो कर महल में वापस आया और अपने सभा में राक्षसों की ओर देख कर बोला “एक बार इक्ष्वाकुवंशीय राजा अनरण्य ने मुझे शाप देते हुए कहा था कि एक दिन मेरे वंश में जन्मे महापुरुष के हाथों तू पूरी सेना सहित मारा जायेगा।
आज ऐसा लग रहा है कि यह दशरथ पुत्र राम ही वह पुरुष है। इसके अलावा पूर्वकाल में वेदवती का अपमान करने पर उसने भी शाप दिया था। ऐसा लगता है कि सीता उसी वेदवती के रुप में प्रकट हुई है। ये सारे शाप ही इस संकट के कारक प्रतीत हो रहे हैं।“ उसके बाद स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए रावण ने विशालकाय एवं महाबली राक्षस कुम्भकर्ण को जगाने का आदेश दिया। उपर्युक्त दोनों शापों की चर्चा युद्धकाण्ड के 60वें अध्याय में की गई है। इन शापों की विस्तृत जानकारी ‘रामायण में शाप प्रसंग’ में नीचे दिए गए शाप-23 और शाप-24 में भी दी गई है।
उन्नीसवां शाप (19th Curse) – ब्रह्माजी द्वारा कुम्भकर्ण को शाप
कुम्भकर्ण को मिले इस शाप का वर्णन युद्धकाण्ड के 61वें अध्याय में आता है जो इस प्रकार है:- एक विशालकाय राक्षस को युद्ध क्षेत्र में आता देख श्री राम ने विभीषण से उसके बारे में पूछा। विभीषण ने बताया कि यह विशाल राक्षस महाबली और वरदानी कुम्भकर्ण है। यह हमेशा भूख से पीड़ित रहता है।
इसने जन्म लेते ही हजारों लोगों को खा लिया था। इस प्रकार मारे जाने के भय से लोगों ने देवराज इन्द्र से प्रार्थना की। इन्द्र ने अपने वज्र से इस पर प्रहार किया किन्तु इसने इन्द्र को ही घायल कर दिया था। उसके बाद सभी प्रजा इन्द्र के साथ ब्रह्मा जी की शरण में पहुंचे और इस राक्षस से बचाने की प्रार्थना करने लगे। ब्रह्मा जी ने सभी राक्षसों के साथ कुम्भकर्ण को बुला कर कहा, “विश्रवा ने तूझे इस सृष्टि का नाश करने के लिए ही जन्मा है, इसलिए मैं शाप देता हूं कि “तू आज से हमेशा मुर्दे की तरह सोता रहेगा।“
तब घबरा कर रावण ने ब्रह्माजी से प्रार्थना करते हुए कहा कि आप अपने ही नाती को इतना कठोर शाप मत दीजिए। आपका कथन कभी झूठा नहीं होता अतः आप इसके सोने एवं जागने का समय निश्चित कर दीजिए। रावण की प्रार्थना स्वीकार करते हुए ब्रह्माजी ने कहा “ठीक है, आज से यह छ: महीने तक सोता रहेगा और एक दिन के लिए जागेगा। उस एक दिन ही यह भूखा होकर पृथ्वी पर विचरण करते हुए बहुत सारे लोगों को अपना ग्रास बनायेगा।“ विभीषण ने आगे कहा कि आज रावण ने युद्ध से डरकर उसे नींद से जगा दिया है। इसलिए ब्रह्माजी के शाप से पीड़ित कुम्भकर्ण अपनी भूख मिटाने के लिए वानर सेना की ओर बढ़ रहा है।
बीसवां शाप (20th Curse) – पुलस्त्य ऋषि द्वारा श्रषि कन्याओं एवं अप्सराओं को शाप
रामायण में शाप प्रसंग के 20वें शाप की चर्चा उत्तरकाण्ड के दूसरे अध्याय में की गई है। जब श्रीराम ने राक्षसों की उत्पत्ति के विषय में महर्षि अगस्त्य से पूछा तो ऋषि ने इस प्रकार बताना आरम्भ किया- ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्य मुनि के बारे में बताया कि पुलस्त्य बहुत बुद्धिमान, विद्वान, धार्मिक एवं सर्व गुण संपन्न मुनि थे। एक बार वह किसी धार्मिक समारोह में भाग लेने मेरू पर्वत के पास स्थित राजर्षि तृणबिन्दु के आश्रम में गए। वह स्थान अत्यंत सुंदर, शान्त एवं रमणीय था। पुलस्त्य वहीं रह कर वेदों का अध्ययन एवं तपस्या करने लगे।
उस आश्रम के आसपास कई श्रषियों, राजर्षियों की कन्याएं एवं अप्सराएं भी रहती थी। उनके आश्रम के पास का स्थान अत्यंत रमणीय और सुन्दर था इसलिए ये कन्याएं एवं अप्सराएं वहां आकर गाती, बजाती, नाचती एवं खेलती कूदती रहती थीं। जिस कारण मुनि के अध्ययन एवं तपस्या में बाधा पड़ने लगी। इससे मुनि रुष्ट हो गये और उन्होंने शाप देते हुए कहा कि “कल से जो भी कन्या मेरी दृष्टि के सामने आयेंगी वह निश्चित रूप से गर्भ धारण कर लेगी।“ यह सुनकर कर कन्याएं शाप के डर से भाग गयी और वहां आना छोड़ दिया।
तृणबिन्दु की कन्या ने वह शाप नहीं सुना था इसलिए वह रोज की तरह अगले दिन उस स्थान पर पहुंची। अपनी सहेलियों को वहां न पा कर ढूंढते हुए वह पुलस्त्य मुनि के अध्ययन स्थल तक पहुंच गयी। जैसे ही मुनि की दृष्टि उसपर पढ़ी तुरंत उसका रंग पीला पड़ गया और गर्भ के लक्षण प्रकट हो गए। शारीरिक परिवर्तन देख कर वह कन्या डर गई और भाग कर अपने पिता तृणबिन्दु के पास पहुंची। अपनी पुत्री को इस हाल में देखकर उन्होंने इसका कारण पूछा। कन्या ने रोते हुए बताया कि उसे कुछ पता नहीं यह कैसे हुआ।
तृणबिन्दु ज्ञानी एवं तपस्वी थे, उन्होंने तप और ध्यान के बल से पता लगा लिया कि यह पुलस्त्य मुनि के शाप के कारण हुआ है। तब तृणबिन्दु अपनी कन्या को लेकर पुलस्त्य मुनि के पास गए और कहा कि आप मेरी पुत्री को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। अब यह आपके साथ रह कर आपकी सेवा करेगी। पुलस्त्य मुनि ने उनकी बात मानते हुए उस कन्या को अपने आश्रम में रहने की आज्ञा दे दी। समय बीतने के साथ मुनि उसकी सेवा, वेदों का श्रवण एवं वेदों के प्रति उसकी रुचि से प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे वर देते हुए कहा कि ‘तुम्हारा एक महान, विद्वान, ज्ञानी एवं तपस्वी पुत्र होगा जो विश्रवा के नाम से प्रसिद्ध होगा।‘ इस प्रकार आगे चलकर विश्रवा का पुत्र रावण हुआ।
इक्कीसवां शाप (21st Curse) – विश्रवा श्रषि द्वारा रावण को शाप
उत्तरकाण्ड के 11वें अध्याय में रावण के पिता द्वारा दिए गए शाप के विषय में चर्चा आती है जिसमें रावण के पिता ऋषि विश्रवा अपने जेष्ठ पुत्र कुबेर को समझाते हुए कहते हैं कि ‘रावण मेरे शाप के कारण क्रूर प्रकृति का हो गया है और उसकी बुद्धि खोटी हो गई है, अतः तुम कैलास पर जाकर रहो।‘ इस शाप के विषय में और अधिक विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, पर रावण की मां कैकसी के विषय में नौवें अध्याय में बताया गया है कि वह अपने पिता राक्षसराज सुमाली की आज्ञा से विश्रवा श्रषि के पास पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से पहुंची।
तब श्रषि ने उसके मन की बात जान कर कैकसी से कहा ‘तुम क्रूर स्वभाव और भयंकर शरीर वाले पुत्रों को जन्म दोगी।‘ इस प्रकार यह प्रकरण प्रसन्न होकर दिये गये वर की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता और न ही क्रोध वश दिये गये किसी शाप में। फिर भी विश्रवा श्रषि स्वयं कुबेर से कहते हैं कि “रावण मेरे शाप के कारण क्रूर है।” रामायण में शाप प्रसंग के इस अंक में हमने इसे एक शाप प्रसंग माना है।
बाइसवां शाप (22nd Curse) – नंदी द्वारा रावण को शाप
रामायण में शाप प्रसंग का 22वें शाप का वर्णन उत्तरकाण्ड के 16वें अध्याय में भगवान शिव के पार्षद नन्दी द्वारा दिए गए शाप का है। कुबेर को पराजित कर पुष्पक विमान पर कब्जा करके रावण उसमें सवार होकर भ्रमण पर निकला। भ्रमण करते हुए शरवण वन के समीप स्थित एक पर्वत के पास पुष्पक विमान रुक गया।
रावण एवं उसके मंत्रियों को बड़ी हैरानी हुई कि स्वामी की इच्छा से चलने वाला यह विमान आगे नहीं बढ़ रहा है और सोचने लगे कि इसका क्या कारण हो सकता है? इसी बीच भगवान शंकर के प्रिय नंदीश्वर आ पहुंचे। उन्होंने कहा कि तुम इस पर्वत के ऊपर से नहीं जा सकते, वहां शंकर जी क्रीड़ा करते हैं अतः वहां सभी प्रकार के जीव जन्तुओं का आना-जाना बंद है। नंदी की बातें सुनकर रावण क्रोधित होकर बोला ‘कौन है यह शंकर? मैं अभी इस पर्वत को उखाड़ कर दूर फेंक देता हूं।‘
ऐसा बोलते हुए वह पर्वत के जड़ की ओर बढ़ा। वहां पहुंच कर देखा कि नंदीश्वर महाराज हाथ में त्रिशूल लिए भगवान शिव की तरह खड़े थे। उनका मुंह बन्दर के समान था। उन्हें देखकर रावण जोर-जोर से हंसने लगा। अपनी हंसी उड़ाते देख नंदी क्रोधित होकर रावण को शाप देते हुए बोले, “दशानन! तूने मेरा वानर रूप देखकर मेरी हंसी उड़ाई और अवहेलना की है; अतः तेरे कुल का विनाश करने वाले मेरे समान पराक्रमी और बलशाली वानर पैदा होंगे जो एकत्र हो कर तुम्हारे पुत्रों, मंत्रियों और तुम्हारा घमंड चूर चूर करेंगे। मैं तुम्हें अभी मारना नहीं चाहता क्योंकि तुम अपने नीच कर्मों के कारण पहले ही मरे समान हो।“ नंदीश्वर के ऐसे वचन सुनकर देवताओं ने आसमान से फूलों की वर्षा की।
अंत में –
रामायण में शाप प्रसंग की इस कड़ी में और भी कई शाप प्रसंग हैं। सभी को एक ही ब्लॉग में लिखने से यह काफी लम्बा ब्लॉग हो जायेगा। इसलिए 2 पार्ट में लिखने का निश्चय किया है, अतः शेष बचे हुए प्रसंग अगले ब्लॉग में पढ़िए और अपने कमैंट्स भी अवश्य लिखिये। आपके विचारों से ही अगला ब्लॉग लिखने की प्रेरणा मिलती है।
पढ़ने के लिए धन्यवाद !
पढ़िए : 12 ज्योतिर्लिंगों के अलावा और कितने मुख्य धाम हैं शिव के?
लेख कुछ हटकर है । अच्छा लगा जानकारी प्राप्त हुई ।
अन्य सब curse तो विस्तृत हैं लेकिन मारीच को अगस्त्य मुनि ने शाप क्यों दिया यह जानने की उत्सुकता रहेगी
लेख आपको अच्छा लगा इसके लिए धन्यवाद। भविष्य में भी ऐसे ही उत्साहवर्धन कीजिये।
वाल्मीकि रामायण में मारीच के शाप की विस्तृत जानकारी नहीं दी गयी है पर एक अन्य कथा के अनुसार मारीच, बचपन में बहुत उद्दण्ड एवं शरारती था। वह ऋषियों मुनियों को परेशान करता था। इसलिए अगस्त्य मुनि ने उसे शाप दिया। मेरी जानकारी में इस कथा का उचित एवं सटीक सोर्स फिलहाल नहीं है।